
क्या आप सच में अपने जीवन के कर्ता हैं? अष्टावक्र गीता बताती है कि हम केवल माध्यम हैं – आत्मा साक्षी है और हर कार्य प्रकृति के गुणों से होता है। 2025 में आत्मबोध और सत्य की खोज के लिए यह ब्लॉग अवश्य पढ़ें।
अष्टावक्र गीता के दृष्टिकोण से इसे समझना वास्तव में बहुत आवश्यक है। आइए, इसे अष्टावक्र के दृष्टिकोण से समझें:
अष्टावक्र के अनुसार:
अष्टावक्र गीता में यह सिद्धांत प्रमुख है कि "आत्मा" ही असली है, जबकि शरीर, मन, बुद्धि, और अहंकार केवल प्रकृति के अवयव हैं, जो समय, परिस्थिति, और कर्मों के प्रभाव में रहते हैं।
सभी व्यक्तित्व और उनके कार्य प्रकृति के गुणों द्वारा होते हैं। व्यक्ति केवल एक माध्यम है, एक चेतना का साक्षी है, लेकिन उसकी असली पहचान उसकी आत्मा है, न कि शरीर या नाम।
बात को अष्टावक्र के दृष्टिकोण से समझना:
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जो कुछ भी किया, वो प्रकृति ने किया
अष्टावक्र यही सिखाते हैं। प्रकृति का कार्य और गुण ही प्रत्येक व्यक्ति के कर्मों का निर्धारण करते हैं।
प्रकृति (गुण) — सत्त्व, रजस, तमस — ये तीन गुण हैं जो सभी कर्मों के संचालन में होते हैं। कोई भी कार्य व्यक्ति द्वारा नहीं, बल्कि प्रकृति के इन गुणों द्वारा होता है।
इसलिए, चाहे वह डॉ. भीमराव अंबेडकर हों, राम, कृष्ण, शिवाजी महाराज, संभाजी महाराज, राजा जनक, राजा रघु, राजा हरिश्चंद्र आजके नरेंद्र मोदी हो या कोई भी अन्य महान व्यक्ति, वे सभी प्रकृति के गुणों द्वारा प्रेरित होकर कार्य करते हैं, और इन व्यक्तियों का कोई "विशेष" रूप नहीं है। वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा प्रकृति अपना कार्य करती है। -
व्यक्ति कभी विशेष नहीं हो सकता
अष्टावक्र गीता में यह बताया गया है कि व्यक्ति की असली पहचान उसकी आत्मा है, न कि उसका शरीर या नाम। आत्मा एक है — एक ही परम सत्य है, और शरीर व अन्य तत्व केवल अस्थायी हैं। इसलिए, जो भी कार्य हुआ, वह आत्मा या व्यक्ति का नहीं, बल्कि प्रकृति के गुणों का परिणाम है। -
हम भी केवल एक माध्यम हैं
हम सब भी एक माध्यम हैं, प्रकृति के गुणों द्वारा संचालित होते हुए। कोई भी महान व्यक्ति, चाहे वह राजा हो या संत, वे केवल एक माध्यम हैं — और उनका कार्य प्रकृति के गुणों और परिस्थितियों के प्रभाव से होता है।
इस दृष्टिकोण से, व्यक्ति का अहंकार समाप्त हो जाता है। क्योंकि वह समझता है कि वह स्वयं कुछ नहीं है, केवल प्रकृति का एक हिस्सा है जो अपने निर्धारित कर्मों का पालन कर रहा है।
एक उदाहरण से समझें:
अष्टावक्र गीता के अनुसार, जैसे सूरज अपनी रोशनी को नहीं रोक सकता और उसका काम सूरज होना है, वैसे ही हर व्यक्ति का भी एक निर्धारित कार्य है, जो उसे प्रकृति के गुण और समय से मिलता है।
तो फिर व्यक्ति को क्यों अहंकार हो?
अष्टावक्र यही सिखाते हैं। सभी कार्य केवल प्रकृति द्वारा हो रहे हैं, और व्यक्ति एक साक्षी है, न कि कर्ता।
संदेश देना चाहते हैं:
किसी भी व्यक्ति को पूरी तरह से श्रेय नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वे केवल एक माध्यम होते हैं। यदि डॉ. अंबेडकर ने समाज के लिए बहुत कुछ किया, तो यह उनके व्यक्तित्व का नहीं, बल्कि प्रकृति के गुणों का परिणाम था। वे भी एक माध्यम थे, जैसे कि कृष्ण, राम, शिवाजी, संभाजी महाराज, राजा जनक, राजा रघु, राजा हरिश्चंद्र और आज आज के नेता, जैसे नरेंद्र मोदी, वे सभी प्रकृति के तत्वों द्वारा प्रेरित और नियंत्रित होते हैं।
व्यक्ति कभी विशेष नहीं हो सकता, वह तो एक माध्यम है, जो प्रकृति के गुणों के अनुसार कार्य करता है। हर बड़ा कार्य और परिवर्तन केवल प्रकृति के सिद्धांतों द्वारा होता है, और हम सब उसी का हिस्सा हैं।
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अष्टावक्र का बोध:
अष्टावक्र गीता में आत्मा को अकर्ता और असंग बताया गया है।
तुम न शरीर हो, न मन, न बुद्धि। तुम केवल आत्मा हो, जो न किसी कार्य में लिप्त होती है, न किसी फल की इच्छा करती है।
इस दर्शन के अनुसार:
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कर्तापन का अभिमान गलत है
क्योंकि सच्चा कर्ता तो प्रकृति है — उसके तीन गुण: सत्त्व, रजस, और तमस। -
महापुरुष भी माध्यम हैं
चाहे अंबेडकर, राम, कृष्ण, शिवाजी महाराज या आज के नेता, नरेंद्र मोदी — वे सभी एक ही चेतना से संचालित प्रकृति के यंत्र हैं। -
अहंकार क्यों करना?
जब तुम जानते हो कि तुम केवल प्रकृति द्वारा नियंत्रित आत्मा हो, तो अहंकार की कोई जगह नहीं बचती।
यही मुक्ति की शुरुआत है।
आधुनिक उदाहरण से समझें:
जैसे एक बिजली का बल्ब खुद से प्रकाश नहीं देता — वह केवल एक माध्यम है, ऊर्जा तो कहीं और से आती है — वैसे ही हम भी केवल माध्यम हैं, कर्मों के पीछे ऊर्जा तो प्रकृति के गुणों की है।
सच्चा आत्मज्ञान:
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शिव का "शिवत्व",
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राम का "मर्यादा",
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कृष्ण का "लीला",
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अंबेडकर का "संविधान निर्माण"
सब कुछ प्रकृति द्वारा निर्धारित हैं।
• संभाजी महाराज का "वीरता",
• राजा जनक का "न्यायप्रियता"
• राजा रघु का "धर्म"
• राजा हरिश्चंद्र का "सत्यनिष्ठा"
• आज के नरेंद्र मोदी का "राष्ट्र निर्माण" भी प्रकृति के द्वारा निर्धारित है।
हम केवल वही करते हैं जो हमारे भीतर की प्रकृति हमें करने देती है।
निष्कर्ष:
व्यक्ति कभी विशेष नहीं हो सकता। हर कोई केवल माध्यम है, आत्मा है, जो साक्षी है।
• यह समझ ही मुक्ति का मार्ग है।
• यही है अष्टावक्र गीता का गूढ़तम सत्य।
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